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महाराजा रणजीत सिंह 

  

रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को सुकरचकिया मिसल के मुखिया महा सिंह के घर हुआ था। 1792 में महा सिंह के अचानक देहांत से 12 वर्षीय रंजीत सिंह को सुकरचकिया मिसल का सरदार बनाया गया। लेकिन 1792 से 1797 तक एक प्रति शासन परिषद द्वारा जिसमें उसकी माता राज कौर, सास सदा कोर और दीवान लखपत राय थे ,द्वारा शासन कार्य चलाया गया। रणजीत सिंह की सास कन्हैया मिसल की मुखिया थी। उसने दोनों मिसलों की सहायता से रणजीत सिंह की शक्ति को बढ़ाने का पूरा प्रयत्न किया। 

रणजीत सिंह की उन्नति में एक घटना का विशेष योगदान रहा। अहमद शाह अब्दाली का पोता और अफगानिस्तान का शासक जमानशाह भारत पर अपना अधिकार मान आक्रमण करता रहता था। 

1796 में जब वह भारतीय अभियान से वापस लौट रहा था तो मार्ग में उसकी बहुत सी तोपे झेलम नदी के दलदल में फंस गई। रणजीत सिंह ने इन तोपों को निकलवा कर जमान शाह को वापस भिजवा दिया। उसके इस कार्य से प्रसन्न होकर जमानशाह ने रणजीत सिंह को राजा की उपाधि दी और लाहौर पर अधिकार करने की अनुमति भी दे दी। इन दिनों लाहौर पर भंगी मिसल का अधिकार था। 

रणजीत सिंह ने तुरंत ही 1799 में लाहौर पर अधिकार कर लिया। इस विजय से उसकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई। इसके बाद उसने जम्मू को जीत लिया। 1805 में अमृतसर को भी भंगी मिसल से छीन लिया। 

इस तरह पंजाब की आध्यात्मिक (धार्मिक) राजधानी और राजनीतिक राजधानी (लाहौर) दोनों ही रणजीत सिंह के आ गई और वह सिखों का प्रमुख सरदार बन गया। शीघ्र ही उसने झेलम नदी से सतलज नदी तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 

द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध के समय माधवराव सिंधिया और यशवंतराव होल्कर ने अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता की मांग की तो रणजीत सिंह ने अपनी स्थिति को ध्यान में रखते हुए उन्हें सहायता देने से मना कर दिया क्योंकि उसके पास साधन सीमित थे और अंग्रेजों ने भी धमकी दी थी। 

रणजीत सिंह सभी सिख राज्यों को मिलाकर एक शक्तिशाली राज्य बनाना चाहता था और उसने सतलज के पूर्व की ओर स्थित पटियाला ,नाभा और जिंद पर अपना अधिकार करने का प्रयास किया। तब इन राज्यों के शासकों ने अंग्रेजों से सहायता की याचना की।

ऐसे में अंग्रेजों ने इस विषय में हस्तक्षेप किया और अंतत: 1809 में अंग्रेज और रणजीत सिंह के बीच अमृतसर की संधि हो गई। रणजीत सिंह ने सतलुज के पूर्व में न बढ़ने का वादा किया और अंग्रेजों ने इसके पश्चिम की ओर न बढ़ने का वादा किया। दोनों ने एक दूसरे के प्रति मैत्री का आश्वासन दिया। इस समय भारत का गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो था था और यह संधि मेटकॉफ और रंजीत सिंह के बीच हुई थी अमृतसर की संधि ने रंजीत सिंह के सभी सिख राज्यों को संगठित करने के स्वप्न को तोड़ दिया।

ऐसे में अंग्रेजों ने इस विषय में हस्तक्षेप किया और अंतत: 1809 में अंग्रेज और रणजीत सिंह के बीच अमृतसर की संधि हो गई। रणजीत सिंह ने सतलुज के पूर्व में न बढ़ने का वादा किया और अंग्रेजों ने इसके पश्चिम की ओर न बढ़ने का वादा किया। दोनों ने एक दूसरे के प्रति मैत्री का आश्वासन दिया। इस समय भारत का गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो था था और यह संधि मेटकॉफ और रणजीत सिंह के बीच हुई थी अमृतसर की संधि ने रणजीत सिंह के सभी सिख राज्यों को संगठित करने के स्वप्न को तोड़ दिया।

पूर्व दिशा में उसकी प्रगति रुक गई। इससे पूर्व 1804 में रणजीत सिंह ने कांगड़ा के डोगरा सरदार संसारचंद की सहायता प्राप्त कर कांगड़ा का दुर्ग प्राप्त कर लिया था। काबुल के विस्थापित शासक शाह शुजा जो अहमद शाह अब्दाली का पोता था कि सहायता के लिए रणजीत सिंह ने उससे कोहिनूर हीरा ले लिया था लेकिन उसने उसकी विशेष मदद नहीं की। 

रणजीत सिंह ने 1813 में अटक ,1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर ,1823 में पेशावर और 1835 में लद्दाख पर अधिकार कर लिया। अर्थात पूर्व में उन्नति अवरुद्ध होने पर रणजीत सिंह ने उत्तर पश्चिम की ओर विस्तार किया। 

कश्मीर विजय रणजीत सिंह की महान विजय मानी जाती है। इससे उसके राज्य की सीमा चीन और तिब्बत से जा टकराई। लद्दाख विजय में हरीसिंह नलवा का महत्वपूर्ण योगदान था। 

अमृतसर की संधि के बाद 1809 से 1831 तक रणजीत सिंह और अंग्रेजो के बीच संबंध सद्भावना पूर्ण रहे, लेकिन 1831 के बाद रणजीत सिंह की स्थिति कमजोर हो गई तब अंग्रेजों के दबाव के सामने रणजीत सिंह को घुटने टेकने पड़े अर्थात अपने हितों का त्याग करना पड़ा। अंग्रेजों ने रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर के पास स्थित फिरोजपुर का महत्वपूर्ण स्थान जीत लिया सिंह की तरफ से रोका गया ऐसी परिस्थितियों में 27 जून 1839 को रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। 

रणजीत सिंह का शासन निरंकुश था लेकिन वह अपने आपको खालसा का प्रतिनिधि कहा करता था अपनी सरकार को 'सरकार ए खालसा जी 'कहा करता था। 

उसने अपने नाम के सिक्के भी ढलवाए थे ,उन पर नानक सहाय, गोविंद सहाय और अकाल सहाय अंकित रहता था। 

वह पांच मंत्रियों की सहायता से शासन करता था। पदो के आवंटन में वह योग्यता को महत्व देता था। यूरोपीय वेंचुरा और अलार्ड को भी उसने उच्च पद दिए थे। 

रणजीत सिंह का राज्य कश्मीर, मुल्तान ,पेशावर और लाहौरइन चार सूबों में विभक्त था। सूबे के प्रधान को नाजिम कहते थे। 

न्याय के संदर्भ में मुसलमानों हेतु इस्लामिक नियमों का पालन होता था। सर्वोच्च न्यायालय लाहौर में अदालत ए आला कहलाता था। जुर्मानो से राज्य को काफी आय होती थी। 

रणजीत सिंह ने अपनी सेना को मजबूत बनाने हेतु इसका गठन ब्रिटिश कंपनी के नमूने पर किया था और फ्रांसीसी कमांडरो की सहायता से उसका प्रबंध किया था। तोपखाने पर अत्यधिक बल दिया गया था। 

लाहौर और अमृतसर में गोला बारूद के कारखाने लगाए गए थे। 

सैनिकों को मासिक वेतन /महदारी देने की प्रथा चालू थी। 

उसकी सेना के दो भाग थे फौज -ए- खास और फौज- ए -बेकवायद। फौज ए खास जो आदर्श सेना थी का गठन 1822 में जनरल वन्चूरा (वन्तुरा ) और अलार्ड (अलादु ) द्वारा किया गया था। इसमें अलार्ड ने घुड़सवार सेना को प्रशिक्षण दिया जबकि वेंचुरा ने पदाति सेना को। इलाही बख्श तोपखाने का प्रमुख था। 

1838 ईस्वी में गवर्नर जनरल ऑकलैंड ने रणजीत सिंह की सेना का निरीक्षण कर उसे विश्व की योग्यतम सेना बताया था। 

उसने एक मजबूत तोपखाना भी यूरोपियों की सहायता से स्थापित किया था। अप्रशिक्षित सैनिक फौज ए बेकवायद कहलाते थे। 

रणजीत सिंह की सेना में विदेशी जातियों के 39 अफसर कार्यरत थे ( फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, यूनान, रूस, स्पेन,स्कॉटलैंड ) 

सिविल प्रशासन में भी विदेशियों को ऊंचे पद प्रदान किए गए थे। 

एक बार उसने एक मुसलमान संत की चरणों की धूलि को अपनी सफेद दाढ़ी से साफ किया था। 

फ्रांसीसी पर्यटक विक्टर जाकमा ने उसकी तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है।

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